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राष्ट्र कवियत्री ःसुभद्रा कुमारी चौहान की रचनाएँ ःउन्मादिनी



अंगूठी की खोजः
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जिस दिन मैंने पहले-पहल यशोदा को देखा, मैं कह नहीं सकता कि मेरी मानसिक स्थिति कितनी भयंकर थी। वह रात-मिलन की पहली रात-सुहागरात थी। और मैं-मैं घर से भागकर इसी स्थान पर इससे भी अधिक उद्विग्न और व्याकुल अवस्था में छटपटा रहा था। जीवन में मुझे उससे भी अधिक आत्म-ग्लानि और व्याकुलता का सामना करना था। कदाचित्‌ इसीलिए न जाने किस प्रकार कुछ अभिन्‍न-हृदय मित्रों को मेरी मानसिक स्थिति का पता लग गया। वे मेरे अभिन्‍न-हृदय मित्र थे। वे जानते थे कि इस पीड़ा से मुक्ति पाने के लिए कड़ी-से-कड़ी विपत्तियों को भी झेल सकता हूँ। इसलिए वे मुझे खोजते हुए आए; और मेरे साथ ही उन्होंने वहीं पर रात बिताई।

इसके बाद क्रमशः मेरी अवस्था कुछ सँभली और बहुत कुछ तो मित्रों के आग्रह से, और कुछ-कुछ किसी प्रकार जीवन के दिन काट देने के लिए मैंने यशोदा को शिक्षिता बनाना चाहा। किंतु परिणाम कुछ न हुआ। क से कबूतर और ख से खरगोश, इसके आगे यशोदा न पढ़ सकी। उसे पढ़ने-लिखने की तरफ जैसे रुचि ही न थी। पढ़ने के लिए जब मैं उससे प्रेममय अनुरोध करता तो वह प्रायः यही कहके टाल दिया करती, अब मुझे पढ़-लिख के क्या करना है? नौकरी करवाओगे?

अपने प्रश्नों के उत्तर में इस प्रकार की बातें सुनकर मुझे कितनी मार्मिक पीड़ा होती थी, मेरा हृदय कितना विचलित हो उठता था, यशोदा न तो समझती थी, और न उसने कभी समझने का प्रयत्न ही किया। परिणाम यह हुआ कि मुझे घर से बिलकुल विरक्ति हो गई। कोई भी आकर्षण शेष न रह जाने के कारण मैं घर बहुत कम जाने लगा। महीने में एकाध बार ही मैं घर पर भोजन करता। यदि भोजन के समय किसी मित्र के घर होता तो उसके आग्रह से वहीं, अन्यथा किसी होटल में मेरा प्रतिदिन का भोजन होता। प्रायः बहुत से दिन तो चाय के एक-दो प्यालों पर ही बीत जाया करते। तात्पर्य यह कि मेरा स्नान, भोजन, सोना, जागना सभी कुछ अनियमित था। नियमित रहता भी कैसे। मैं अपनी इस उठती जवानी में ही बुढ़ापे का अनुभव कर रहा था; जीवन मुझे भार-सा प्रतीत होता, न किसी प्रकार की इच्छा शेष थी न आकांक्षा, न उत्साह था और न उमंग, जीवन को किसी प्रकार ढकेले लिए जाता था।

मैं स्वभाव से ही अध्ययनशील, विद्यानुरागी, स्वाभिमानी, भावुक और अल्पभाषी था। मैं अपने कुछ इने-गिने मित्रों को छोड़ अन्य लोगों से बहुत कम मिलता-जुलता था। प्रायः अपना अधिकांश समय अध्ययन में ही बिताया करता था। मेरी लाइब्रेरी में संसार के प्रायः सभी विद्वान्-लेखकों की कृतियाँ आलमारियों में सजी थीं। उन्हें मैं अनेक बार पढ़कर भी फिर से पढ़ने का इच्छुक था। प्रायः लाइब्रेरी में जब मैं पुस्तकों का अध्ययन करता होता और उनमें किसी सुशिक्षिता महिला के विषय में कोई प्रसंग आ जाता, तो कल्पना के उच्चतम शिखर से ही मैं अपनी जीवनसंगिनी का दर्शन करता; और वहाँ से मैं देखता कि मेरी प्रेयसी पढ़ने में, लिखने में, सामाजिक और सांसारिक प्रत्येक कार्यों में मेरी वैसी ही सहायक है जैसे पुस्तक लेखक की स्त्री, जिसका दर्शन मैं अभी पुस्तक के पृष्ठों में कर चुका हूँ। यही कारण था कि विवाह के बाद मुझे इतनी अधिक निराशा हुई। मैं कल्पना के जिस शिखर पर विचरण कर रहा था, वहाँ से एकदम नीचे गिर पड़ा।

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